रविवार, नवंबर 22, 2009

अघोरेश्वर भगवान राम जीः अघोर दीक्षा

बालक भगवान दास २८ जुलाई सन् १९५१ ई० दिन शनिवार को प्रातः .३० बजे सुविख्यात अघोरपीठ, कीनाराम स्थल , क्रीं कुण्ड वाराणसी में प्रविष्ठ हुए थे उस समय स्थल के महंथ बाबा राजेश्वर राम जी सो रहे थे आपको महंथ जी ने स्थल में निवास हेतु अनुमत कर दिया दूसरे दिन बाबा आशु राम, जो स्थल के महंथ जी के गुरुभाई एवं स्वयं भी अघोराचार्य थे, ने किसी भक्त द्वारा उपहार में भेजे गये मछली भात आपको खाने के लिये दिया अबतक वैष्णवाचार में रहने के कारण आपको मछलीभात खाना स्वीकार नहीं हुआ आपने ऊपर ऊपर का भात थोड़ा सा खाकर शेष भोजन क्रीं कुण्ड में डाल दिया और अपनी थाली माँज कर रख दिया

एक दिन महंथ जी के किसी मुसलमान मित्र से मिलाद का निमन्त्रण मिला महंथ जी ने बालक भगवानदास को उसमें शरीक होने का आदेश दिया मिलाद शरीफ के बाद बुनियां बटीं आपने ग्रहण तो कर लिया पर आपके पुराने संस्कार ने आपको विचलित कर दिया मुसलमान का छुआ अन्न हिन्दू कैसे ग्रहण करे आप स्थल लौटे रात में जब स्थल के सब लोग सो गये आपने गँगा जी की ओर प्रस्थान किया आपने उक्त पाप के परिहार के निमित्त अनेक बार पतितपावनी गँगा जी में स्नान किया सबेरे जब यह बात महंथ जी की जानकारी में लाया गया, उन्होने आपको बुलाकर समझाया " हमारी कोई जाति नहीं, हम सभी धर्मों के प्रति आदर रखते हैं हम छूआछूत में विश्वास नहीं करते हम प्रत्येक मनुष्य को अपना भाई और प्रत्येक स्त्री को माता समझते हैं मानव मानव में कैसा भेद, कैसा दुराव ? " उसी समय आपके मन में यह भाव आया कि यदि हमको अघोरी होना है तो इस भाव को ग्रहण करना होगा तथा समस्त संकीर्णता मूलक भाव का परित्याग करना होगा क्रमशः आपकी समस्त कठिनाइयाँ दूर होती गईं

क्रींकुण्ड स्थल में बाबा कीनाराम जी द्वारा प्रज्वलित अखण्ड धूनी की सेवा आश्रमवासी करते हैं अखण्डधूनी को प्रज्वलित रखने के लिये श्मशान से लाई गई लकड़ियों का उपयोग होता है ये लकड़ियाँ हरिश्चन्द्रघाट से लायी जाती हैं महंत जी ने बालक भगवान दास को लकड़ी लाने के लिये बाबा आशुराम के साथ भेजा यह काम कम आयु तथा कठोर श्रम का अभ्यास होने के कारण आपके लिये कठिन था आप प्रायः थक जाया करते थे इतना होते हुए भी आप आश्रम का समस्त कार्य तथा गुरु सेवा बड़े ही मनोयोग पूर्वक करते रहे आश्रम की इन्ही कठिनाइयों के कारण आपने एक बार गुण्डी लौटकर अपने शुभ चिंतक परमहंस जी से सलाह ली थी परमहंस जी ने दृढ़तापूर्वक आगे बढ़ने की सलाह दी थी

बालक भगवान दास आश्रम प्रवेश के दिन से मास तक अघोराचार्य कीनाराम स्थल में रहे इसीबीच आपको बाबा राजेश्वर राम जी से अघोरपथ की दीक्षा प्राप्त हुई

यहाँ पर दीक्षा के विषय में कुछ तथ्य प्रस्तुत करना समीचिन प्रतीत होता है प्राप्त सामग्री प्रस्तुत है

दीक्षा

दीक्षा कीनारामी अघोरियों में संस्कार के नाम से भी जाना जाता है । गुरु दीक्षा देते हैं और शिष्य ग्रहण करता है । गुरु शिष्य का अधिकार जानकर ही दीक्षा प्रदान करते हैं । जिसका आधार दुर्बल है उसे दीक्षादान नहीं होता । अधिकारी शिष्य के आधार की योग्यता तथा प्रकृति विलक्षण होती है । शिष्य के अधिकार का निर्णय जन्म काल से होता है । जीव क्षण में जन्म लेने से योगी और काल में जन्म लेने से साधक बनता है ।

अध्यात्म के क्षेत्र में गुरु का स्थान सर्वोपरि होता है । गुरु को जन्म, स्थिति और प्रलय के अधिष्ठात्री देवता ब्रह्मा , विष्णु , और महेश के अलावा परम ब्रह्म का साक्षात स्वरुप माना गया है । गुरु ही शिष्य की भक्ति और मुक्ति के कारण स्वरुप हैं । गुरु की अहैतुकी कृपा शिष्य को तीनों गुण सत्, रज, और तम् से मुक्ति दिलाकर त्रिगुणातीत अवस्था में प्रतिष्ठित कर देने में समर्थ है । शिव महिम्न स्तोत्र में कहा गया है " अघोरान्ना परो मन्त्रः नास्ति तत्वं गुरो परम् " अर्थात अघोर मन्त्र से बढ़कर कोई मन्त्र नहीं है और गुरु तत्व से उँचा या परम् कोई तत्व नहीं है । अघोरेश्वर भगवान राम जी ने गुरु के विषय में बतलाया है कि " यह हाड़माँस की देह गुरु नहीं है । गुरु वह पीठ है जिसके द्वारा व्यक्त विचार तुम में परिपक्वता का पूरक होगा । यदि तुम उसे पालन करते रहोगे, तो गुरुत्व को जानने में सनर्थ होओगे । गुरु तुम्हारे विचार की परिपक्वता, निष्ठा की परिपक्वता, विश्वास की परिपक्वता हैं ।"

दीक्षा के तीन प्रकार बतलाये गये हैं ।

, साधक दीक्षा

, योगी दीक्षा

, कर्ण मन्त्र दीक्षा

साधक दीक्षाः दीक्षादान होने पर गुरुपदिष्ठ बीजमन्त्र साधक के हृदयदेश में स्थापित होता है तथा साधक के द्वारा गोपनीय विधियों के द्वारा शोधित और रक्षित होकर पुष्ट होता रहता है । समयकाल पाकर बीज आकार धारण करता है और बाद में यही सत्ता साकार इष्टदेवता के रुप में प्रकट होता है । योगी दीक्षा और साधक दीक्षा दोनो में ही कुण्डलिनी जागरण होता है । साधक दीक्षा में शक्ति का इतना संचार हो जाता है कि जैसे ही पुरुषाकार का योग होता है कुण्डलिनी जाग जाती है । बाद में गुरु प्रदत्त कर्म के समुचित सम्पादन से उक्त जाग्रत शुद्ध तेज प्रज्वलित होकर साधक के वासना, संस्कार आदि के आवरण को भस्म कर देता है । साधक का विकास होते होते अन्त में सिद्धावस्था आती है जब वासनादि समस्त कल्मशों का सम्पूर्ण रुप से क्षय हो जाता है और कुण्डलिनी शक्ति इष्टदेवता के रुप में प्रकट होती है, पर उस समय साधक का देह नहीं रहता । साधक में सिद्धि के आविर्भाव के साथ साथ देहान्त हो जाता है ।

योगी दीक्षाः योगी दीक्षा की प्रक्रिया थोड़ी अलग होती है । योगी की कुण्डलिनी को गुरुदेव दीक्षा के समय ही जगा देते हैं । योगी को कुण्डलिनी शक्ति साकार इष्टदेवता के रुप में प्राप्त हो जाती है, बाद में अपने कर्मों के द्वारा उसकी आराधना शुरु करता है । योगी अधिक सामर्थवान होता है । उसे वासना का त्याग नहीं करना पड़ता । योगी वासनादि को निर्मल बनाकर अपनी निज स्वरुप में नियोजित कर लेता है । वह शरीर से भी इष्टदेवता का दर्शन करने में समर्थ हो जाता है । योगी जब पूर्ण सिद्ध हो जाता है तब उन्हें निर्मल ज्ञान मिलता है या सत्य का साक्षात्कार हो जाता है । वह अलौकिक शक्ति का अधिकारी बन जाता है । इसमें तीन प्रधान शक्तियाँ हैं इच्छा, ज्ञान और क्रिया । ज्ञान शक्ति से वह सर्वज्ञ तथा क्रिया के प्रभाव से सर्वकर्ता बन जाता है । इच्छा शक्ति के प्रभाव से योगी कोई भी कार्य कर सकता है । इस शक्ति के उदय होने से ज्ञान तथा क्रिया की आवश्यकता नही् होती पर योगी के इच्छानुसार कार्य होता है । अघोर पथ में दीक्षा संस्कार के समय गुरु अधिकारी शिष्य की कुण्डलिनी जगाकर तीन चक्र ! मूलाधार, स्वाधिष्टान और मणिपुर ! तक उठा देते हैं । इसके बाद उस योगी का ईष्ट साकार हो जाता है और फिर शुरु हो जाती है उनकी बिलक्षण आराधना ।

कर्णमन्त्र दीक्षाः इस दीक्षा की गिनती योग साधकों द्वारा दीक्षा के प्रकार में नहीं की जाती । यह एक प्रकार से कर्म काण्ड के बिधान के रुप में सम्पन्न किया जाता है । इसमें गुरु, आचार्य, व्यास, पुरोहित, शिक्षक, शिष्य या शिक्षार्थी के कान में मन्त्र फूँक देते हैं और दीक्षा सम्पन्न हो जाती है । आजकल इस पद्धति से दीक्षा दान करने या पाने की होड़ सी लगी हुई है । बहुत सारी संस्थाएँ, तथाकथित संत महात्मा, आदि विज्ञापन का सहारा लेकर स्वयं को महिमा मंडित कराकर शिष्यों के कान फूँकने में संलग्न हैं, इसीलिये हमने इसकी गिनती कर ली है ।

क्रींकुण्ड स्थल पर बालक भगवान दास के दीक्षा संस्कार के अवसर पर तीन चार दीक्षार्थी और भी आये हुए थे । सभी लोग चक्रपूजन हेतु गोल आकार बनाकर बैठे । महंथ जी ने आवश्यक कलश आदि स्थापित कर पूजन सम्पन्न किया । तदनंतर चक्रपूजन आरम्भ कराया । एक पात्र में मदिरा डाली गई । पात्र में से पहले चक्रेश्वर महंथ जी ने थोड़ी सी मदिरा पी, पात्र में का शेषाँश नव दीक्षित होने वाले शिष्यों को बारी बारी से मिला । चक्रपूजन के पश्चात कुछ गोप्य पूजन भी हुआ । गुरु ने आपको मन्त्र दीक्षा भी दी । इसके पश्चात महंथ जी ने आपकी शिखा के दो चार बाल उखाड़ दिये और नापित को आदेशित कर आपके सिर के बाल मूँड़वा दिये । इस प्रकार आपका दीक्षा संस्कार पूर्ण हुआ । आपका नाम अब भगवान दास से भगवान राम हो गया ।

क्रमशः

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