सोमवार, मार्च 01, 2010

अघोर साधना के मूल तत्वः ब्रह्मचर्य

संसार के सभी धर्मों में अध्यात्म के क्षेत्र में ब्रह्मचर्य को अत्यंत आवश्यक माना गया है । सन्यासी को , विरक्त को इसीलिये शुरुआत में ब्रह्मचारी भी कहा जाता है । पन्चभूतों में सामन्जस्य स्थापित करने और चित्त की वृत्तियों के निरोध के लिये इसे आवश्यक माना गया है । भारत में पुरातन काल से ही शरीर विज्ञानी वीर्य संचय तथा वीर्य से ओज निर्माण की प्रक्रिया से परिचित रहे हैं । वीर्य संचय से ओज बढ़ता है और ओज ही मानव को प्राणवान बनाता है ।

आध्यात्मिक इतिहास में कुछ गिने चुने महाबीर ऐसे हुए हैं, जो गृहस्थ होते हुए भी योग की उच्चावस्था को प्राप्त किये । उनमें से हम दो महापुरुषों की चर्चा करेंगे । एक थे पूज्य श्री रामकृष्ण देव और दूसरे थे लाहिड़ी महाशय । दोनों महायोगी थे इसमें कुछ भी संशय नहीं है । श्री रामकृष्ण देव विवाहित होते हुए भी सन्यस्त का जीवन जीते थे । उनमें ब्रह्मचर्य ने अपने शिखर में उदघोषित हुआ है । श्री लाहिड़ी महाशय गृहस्थ तो थे ही , गृहस्थ धर्म का पालन भी करते थे । उन्होंने जन सामान्य के सामने एक उदाहरण प्रस्तुत किया कि गृहस्थ भी अपने तप के बल से सिद्धावस्था प्राप्त कर सकता है । उन्होंने अपनी डायरी में एक बार स्त्रीप्रसंग के विषय में लिखा है कि साधक के लिये १५ दिनों में स्त्रीप्रसंग करना अनुकूल होता है ।

अघोरपथ में वीर्य संचय को परमावश्यक माना गया है । अघोरेश्वर बाबा कीनाराम जी कहते थेः

" भग बीच लिंग, लिंग बीच पारा, जो राखे सोई गुरु हमारा ।"

अघोरपथ में ब्रह्मचर्य की स्थिति को स्पष्ठ करने के लिये अघोराचार्य बाबा कीनाराम जी के समय की कथा है । कथा कहती है किः

" एक बार बाबा कीनाराम जी के एक शिष्य बाबा दिगम्बर राम जी को लोगों ने फैजाबाद में वेश्याओं के साथ बैठे देखा । बाबा जी से शिकायत हुई । बाबा ने दिगम्बर राम को बुलवाया और कहाः " तुम रमणियों के साथ रहते हो जिससे बदनामी होती है । तुम कहीं ब्रह्मचर्य से च्युत तो नहीं हो गये हो ? यह बड़ा ही निन्दनीय और अशोभनीय कार्य है , और साधु के लिये उपयुक्त नहीं है । इस असराहनीय कार्य से विरत नहीं हुए और ब्रह्मचर्य से च्युत हो गये हो तो मैं तुझे देखना पसन्द नहीं करुँगा ।

अघोरेश्वर भगवान राम जी ने एक बार अपने शिष्यों को सम्बोधित करते हुए कहा था किः
" प्रिय शिष्यो ! नितम्बना के चक्कर में दुनियाँ के सारे मनुष्य प्राणी चिंतन में लग जाते हैं । और इसी नितम्बना के चलते, उनके अधिक मोह में लगे रहने के कारण साधु पुरुष को भी या महापुरुष को भी भय लगता है कि मार्ग कहीं बदल न जाय । हम उस देवी का आदर करते हैं । हम उनको  दूसरे रुप में आदर करते हैं । जिस रुप में गृहस्थ करते हैं, उस रुप में नहीं । अघोरेश्वर जनों को उनकी याद में ही विश्वास है, न कि उनके सम्पर्क में । कुत्ता ही है, गाय बैल भी हैं, मगर वे नितम्बना का सेवन समय, काल और साल में एक बार पूजन करते हैं । मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है, जो नितम्बना के चिंतन में सदा लगा रहता है । उस मनुष्य से क्या आशा की जा सकती है, जिसका मस्तिष्क नितम्बना के चरणों में बन्धक रह जाता है । कुत्ता भी है तो वह कुतिया के पास साल में रजस्वला होने पर जाता है । स्वजाति में जाता है, परजाति में नहीं । अगर्भवती में जाता है, गर्भवती में नहीं । मनुष्य स्वजाति में भी, परजाति में भी जाता है और समय काल को भी तिलाञ्जलि दिये रहता है ।"

अघोरपथ में चारों अंगों से ब्रह्मचर्य का पालन करना होता है । ये चार अंग हैं‍ , १, मन २, कर्म ३, वचन या जिव्हा और ४, चक्षु । साधक को हर समय सावधान रहने की आवश्यकता होती है, अन्यथा काम को अपना पाँव पसारने में समय नहीं लगता ।

क्रमशः



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