बुधवार, अप्रैल 15, 2015

अघोर वचन - 5

" यों तो मलमूत्र का हमारा शरीर है फिर भी हम कहते हैं कि बड़ा पवित्र है । सभी लोग बड़े पवित्र भी बने रहते हैं । दुष्कृत्यों में लिप्त होकर भी अपनी पवित्रता का प्रदर्शन करते हैं ।"
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शरीर का निर्माण पँच तत्वों ( धरती या मिट्टी, जल, अग्नि, वायु, और आकाश ) से हुआ है । इन तत्वों के सँयोग और बियोग से या यों कहें रासायनिक क्रियाओं से शरीर के अवयव, रस, रक्त, धातु तथा अवशिष्ट के रूप में मल, मूत्र आदि का निर्माण होता है । शरीर के रहते तक यह प्रक्रिया अनवरत रूप से चलती रहती है । शरीर इन अवशिष्ट पदार्थों से कभी भी खालि नहीं होता, वरन् आयुर्वेद कहता है " मलं ही बलं च" अर्थात शरीर का बल मल है ।

पवित्रता एक मनः - सापेक्ष शब्द है । जिन कार्यों से मन में सद् विचार उदय हों, भगवद् भक्ति में मन रमे, परोपकार करने की इच्छा जगे एवँ प्रफुल्लता का भान हो पवित्रता में शामिल होते हैं । साधारणतः हम स्नान करके धुले वस्त्र धारण कर स्वयँ को पवित्र मान लेते हैं जबकि शरीर में मल, मूत्र और अन्य गँदगियाँ भरी रहती हैं । अनेक बार हम शार्टकट अपनाते हैं और हाथ पाँव धोकर, मन्त्र स्नान करके या गँध, चन्दन मलकर भी पवित्र होना मान लेते हैं । समाज में जाति मूलक पवित्रता का भी अस्तित्व दिखता है ।

पिछले कुछ समय में हमने कुछ तथाकथित पवित्र आत्माओं को देखा है जिनके अनेक दुष्कृत्य उजागर हुये हैं । समाज को ऐसी पवित्रता से सदा ही हानि उठनी पड़ती है । ये पवित्रता के नाम पर मानव मात्र को अपवित्र कर रहे हैं ।
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