गुरुवार, अप्रैल 16, 2015

अघोर वचन - 6

" मनुष्य की दुर्बलतायें उसकी दृष्टि तथा वाणी को विक्षुब्ध कर देती है । उस विक्षुब्धता की स्थिति में वह गलत और सही को समझ नहीं पाता है । यदि समझता भी है तो सिर्फ यही समझता है कि हमीं सब समझ बैठे हैं । ऐसे समझने वाला अपमानित एवँ प्रताड़ित होकर निरादर का पात्र होता है ।"
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दुर्बलता दो प्रकार की होती है । पहली है शारीरिक दुर्बलता । कोई अँग भँग हो जाय, जीर्ण रोग हो जाय या बृद्धावस्था आ जाय तब शरीर दुर्बल हो जाता है । अपना कार्य सुचारू रूप से नहीं कर सकता । नित्य नैमित्यिक कार्यों के लिये भी दूसरों पर निर्भर हो जाता है । दूसरी है मानसिक दुर्बलता । कहा गया है कि पुष्ट एवँ सबल शरीर में ही स्वस्थ्य मन रहता है यानि शरीर यदि निर्बल हो गया तो मन भी दुर्बल हो जायेगा । चेतन मन और अवचेतन मन में किन्ही कारणों से असँतुलन हो जाय तो मन दुर्बल हो जाता है । ऐसी अवस्था आ जाती है कि मनुष्य पागलपन की सीमा में चला जाता है । कुछ ऐसे कारण भी होते हैं जिनकी जानकारी नहीं हो पाती पर मन को दुर्बल कर देते हैं ।

इन दुर्बलताओं के चलते मनुष्य अपनी सहज अवस्था को खो देता है और आचार, विचार और व्यवहार से असंतुलित हो जाता है । उसे अपनी गलती का भान ही नहीं होता । वह निर्णय नहीं कर पाता कि क्या सही है क्या गलत । वह वाणी से, जो कि उसके मन का प्रतिबिम्ब होता है, अनर्गल बातें कहता है । इसे ही दृष्टि और वाणी का बिक्षुब्ध होना कहा जाता है ।

मनुष्य यदि अपने आचार, व्यवहार और वाणी से संतुलन खोकर अपव्यवहार में संलग्न हो जाता है, दूसरों के कष्ट का कारण बनने लगता है तो लोग उसे बुद्धिहीन कहकर अपमानित करने लग जाते हैं । समाज में उसका आदर जाता रहता है । वह इस कारण से प्रताड़ित भी होता है ।
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