सोमवार, अप्रैल 27, 2015

अघोर वचन - 10

" लोग कहते हैं कि यह मन यदि अच्छे से मान जाय तो बहुत कुछ हो सकता है । मगर मैं कहता हूँ कि नहीं होता है । मन को मानने से नहीं होगा । मगर हाँ, मन यदि मन में हो, मन बेमन का न हो, तब तो कुछ काम सुलझेगा । यदि मन, मन में ही न हो और मन बेमन का हो गया हो, तब तो मन के वन में मन को ढ़ूढ़ते हुए क्लेश, वेदना सहना ही होगा ।"
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भारतीय ॠषि महर्षियों से लेकर आधुनिक युग के फ्रायड और कार्ल जुँग जैसे मनोवैज्ञानिक मन को जानने, पहचानने और साधने के लिये बहुत मेहनत करते रहे हैं । उन्हें किन्ही स्तरों पर सफलता भी मिली है । सबने मानव मात्र को मन के विषय में अपने अनुसंधान के परिणामों से अवगत भी कराया है । अब हम मन के विषय में पहले से अधिक जानकारी रखते हैं । मन अच्छे से मान जाय का अर्थ है मन सहज ही एकाग्र हो जाय । ऐसा माना जाता है कि एकाग्रता से बहुत कुछ पाया जा सकता है ।

साधारण मनुष्य के लिये एकाग्रता बड़ी उपलब्धि हो सकती है । एकाग्र मन शक्तिशाली हो उठता है । अध्ययन, चिंतन, मनन के लिये एकाग्रता की बड़ी आवश्यकता होती है । अघोरेश्वर कहते हैं कि मन की एकाग्रता से कुछ हो सकता है पर बहुत कुछ नहीं । क्योंकि मन की एकाग्रता एक क्रिया है जो करने से होता है । इसकी अवधि सीमित है ।  इसके बाद मन फिर अपने रास्ते चल पड़ता है ।

हम देखते हैं कि हमारा शरीर कहीं होता है और मन कहीं और । हम कुछ कार्य करते हैं पर उस कार्य में हमारा मन नहीं लगता । कभी कभी हम अपने आस पास से निर्लिप्त हो जाते हैं । हमें पता ही नहीं चलता कि क्या हो रहा है । इसे कहते हैं मन का बेमन होना । वचन में कहा गया है कि मन यदि मन में हो यानि हम चैतन्य हों । वर्तमान में हों । स्थान, काल से निरपेक्ष न हों तो कहा जायेगा मन मन में है । इसके विपरीत की स्थिति को बेमन कहा जायेगा ।

मनुष्य को हमेशा चैतन्य होना चाहिये । वर्तमान में रहना चाहिये । शरीर और मन का तारतम्य बनाये रखना चाहिये । इससे मन अपने आप में रहेगा । बेमन का नहीं होगा और हमें मन में उठने वाले विचारों के महा सागर में स्थिरता, शाँति हेतु महत् प्रयत्न की आवश्यकता नहीं होगी । मानसिक क्लेश और वेदना से भी हमारा बचाव हो जायेगा ।
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