शुक्रवार, अप्रैल 24, 2015

अघोर वचन - 9

" आज मनुष्य राम, कृष्ण, शिव, साधु और महात्माओं का ध्यान तो करते हैं किन्तु क्या वे कभी अपना भी ध्यान करते हैं ? मनुष्य जब तक स्वयँ अपने प्रति दया नहीं करेगा, अपने को गन्दगी में गिरने से रोकने का प्रयास नहीं करेगा तब तक उसकी सभी पूजा अर्चना निरर्थक है ।"
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समग्र धरती पर निवास करने वाले मनुष्य ईश्वर को मानते हैं, उसकी पूजा करते हैं । ईश्वर को स्थान, भाषा, जाति, धर्म के अनुसार अलग अलग नाम, रूप दिया गया है, पर आस्था में समानता है । इस पूजा, ध्यान, या और जो भी नाम हो से मनुष्य क्या पाता है, कैसे पाता है, यह एक बृहद विषय है । अलग विषय है । ध्यान, पूजन अर्थपूर्ण है । उससे मनुष्य को वाँक्षित लाभ प्राप्त होता है यह निश्चित है ।

हम देखते हैं मनुष्य नियम से रोज पूजा अर्चना करता है, पर न तो उसकी समस्यायें दूर होती हैं और न उसे सुःख शाँति ही नसीब होती है । इसके कारणों की चर्चा इस वचन में किया गया है । आप्त वाक्य है " ध्येय जितना पवित्र होगा साधन को भी उतना ही पवित्र होना चाहिये" । यहाँ ध्येय ईश्वर है और साधन मनुष्य है । ईश्वर तो परम पवित्र है, पर साधन रूप मनुष्य भी क्या उतना ही पवित्र है । यदि है तो ध्येय प्राप्ति सरल है और नहीं तो कठिन से भी कठिनतर है ।

मनुष्य को पहले अपने मन और शरीर को साधना चाहिये । शरीर स्वस्थ रहे । सबल रहे । यह परम आवश्यक है । स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन रहता है । मन के कलुश अनेक हैं, जैसे लोभ, मोह, काम, क्रोध, आदि आदि, उन्ही के कारण मन हर समय चलायमान रहता है । हम इनको मन से हटा नहीं सकते । इनको दबाने से ये छुटकारे की प्रबल चेष्टा करते हैं जिससे मन और भी अधिक असंतुलित होकर मनुष्य को तृष्णा के भँवर में फँसा देता है । मनुष्य को सदैव सचेष्ट रहकर मन के इन विकारों पर दृष्टि रखनी चाहिये । मन में उठती तृष्णा की विचार लहरियों पर न अटक कर उनकी उपेक्षा कर देनी चाहिये । इससे मन निर्मल होगा एवँ स्थिरता आयेगी जो धीरे से शाँति में बदल जायेगी । इस शाँत मन से की गई प्रत्येक पूजा, अर्चना सफल होगी और वाँक्षित लाभ प्राप्त होगा ।
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