मंगलवार, मई 12, 2015

अघोर वचन - 23

" सुधर्मा ! तुम्हें यह पूर्णतः जान लेना होगा और जान कर अपने आप में, उस अज्ञात के चरणों में, व्यवहारिक अन्वेषण करना होगा । व्यवहारिक न होने के कारण दर्शन या फिलासफी बिल्कुल अधूरे हैं । दर्शन और फिलासफी अपने को, अपनी बुद्धि को, सत्य से अपरिचित रखता है । सत्य एवँ उस अज्ञात की दया और कृपा ही व्यवहारिक है ।"
                                                         ०००

मनुष्य का मन भी बड़ा विचित्र है । वह जानता है पर अनजान सरीखे जिये चला जाता है । मृत्यु अकाट्य सत्य है सब जानते हैं पर धन, सम्पत्ति, मान, सम्मान जोड़ते हुये ऐसे जीते हैं जैसे अनजान हों । यह जानना अपूर्ण है । अघोरेश्वर सुधर्मा यानिकि धर्म के, अघोर पथ के पथिक को कहते हैं कि जो तुम जानते हो उसे पूर्णतः जानना ।  उस जानने को मानना भी । शँका, अविश्वास के रहते पूर्णतः जानना नहीं होगा । दुनियाँ से अपने आप को अलग करके मत देखना । अपने पक्ष में कोई अतिरिक्त आशा मत पालना कि जानकर भी अनजान बन जाओ ।

जानना क्या है ? यह मूल प्रश्न है । मनुष्य को उपलब्ध शरीर और मन में नित्य जो घट रहा है उसे जानना है । संसार में अपने आसपास जो घट रहा है उसे भी जानना है । स्थिति निरपेक्ष होकर जानना है । समय निरपेक्ष होकर जानना है । और पूर्णतः जानना है । इस जानने के बाद अपने आप में उस जानने वाले को भी जानना है । उस अज्ञात को भी जानने सरीखे होना होगा । यही जानना व्यवहारिक अन्वेषण होगा ।

प्राचीन काल से ही भारत में दर्शन या फिलासफी की बहुलता रही है । डा० आंबेडकर ने अपनी पुस्तक " भगवान बुद्ध और उनका धर्म " में उल्लेख किया है कि भगवान बुद्ध के समय भारत में तिरसठ दर्शन प्रचलित थे । इन सभी दर्शनों ने अलग अलग या मिलकर भी एक बुद्ध पैदा नहीं कर सके क्योंकि दर्शन अधूरे हैं । कोरे सिद्धांत हैं । व्यवहारिक नहीं हैं । जल पर बड़े बड़े सिद्धांत रचकर प्यास नहीं बुझाई जा सकती । उसके लिये तो जल पीना पड़ेगा । जल पीना सत्य है । व्यवहार में आता है ।

सत्य जब व्यवहार में आ जाता है तो कुछ भी अनजाना नहीं रहता । सब कुछ दिखने लगता है । यही उसकी दया है । परमेश्वर, अज्ञात भी सत्य व्यवहार के पक्ष में होते हैं । सत्यनिष्ठ पर उनकी कृपा होती है ।
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