सोमवार, मई 04, 2015

अघोर वचन -17

" हम अपने जीवन में तरह तरह के स्वप्न देखते हैं । कोई मार रहा है । कोई काट रहा है । कोई मर रहा है । कोई जी रहा है । यह जो निशा है जिसमें हम स्वप्न देखते हैं, इसके कारण ऐसा होता है यह भी नहीं है । इसी तरह से उस उषा को ढ़ूँढ़ता रहता है कि उषा के आगमन से मेरी निद्रा भँग होगी । मैं प्रयत्नशील पुरूष होऊँगा । हर तरह का प्रयत्न करूँगा, जतन करूँगा और नया संसार बनाउँगा ।"
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स्वप्न बड़ा अर्थपूर्ण शब्द है । लगभग प्रत्येक मनुष्य कुछ बड़ा काम करने का, बड़ा पद प्रतिष्ठा पाने का, बड़ी धनराशि का, परिवार का आदि नाना प्रकार के स्वप्न देखता है । उसमें से कितने पूरे होते हैं । कितने अधूरे रह जाते हैं । कितने छूट जाते हैं । मनुष्य अपने प्रयत्न, अपनी क्षमता और परिस्थिति के अनुसार अपने स्वप्न में से कुछ एक को ही पूरा कर पाता है । संत महात्माओं ने तो जीवन को ही स्वप्नवत माना है । आचार्य रजनीश का कथन इस सम्बन्ध में बड़ा ही महत्वपूर्ण प्रतीत होता है । वे कहते हैं कि साधक को हर पल, शरीर के प्रत्येक क्रिया कलाप के प्रति चैतन्य होना चाहिये । यानि कि मनुष्य निद्रावस्था में स्वप्नवत जीता है । जीवन ही स्वप्न है ।

मनुष्य सोते हुये भी स्वप्न देखता है । उसमें वह जीवन के सभी आयामों को जीता है । युद्ध भी होते हैं, प्रेम भी करते हैं, मृत्यु भी देखते है और जीवन भी जीते हैं । इन स्वप्नों का कारण वह अँधकार पूर्ण निशा रात्रि नहीं होती । निद्रावस्था में देखे गये स्वप्न के विषय में पातँजल योगसूत्र के समाधिपाद के ३८ वें सूत्र में कहा गया है कि " स्वप्ननिद्राज्ञानालम्बनँ वा ।" अर्थात स्वप्नावस्था में कभी कभी जो अपूर्व ज्ञानलाभ होता है, उसका तथा सुषुप्ति अवस्था में प्राप्त सात्विक सुख का ध्यान करने से भी चित्त प्रशान्त होता है ।

अघोरेश्वर जी के वचन अनुभवजन्य हैं । स्वानुभूत हैं । व्यवहारिक हैं । तदपि द्रष्टा ऋषियों के शास्त्रोक्त कथन से मेल खाते हैं । स्वप्न चाहे जाग्रत हो, चाहे निद्रागत हो स्वप्न ही है । स्वप्न की पूर्णता उषाकाल में प्रकाश के आगमन, व्यक्ति के प्रयत्न और जतन से ही सँभव होता है ।

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