रविवार, मई 03, 2015

अघोर वचन -16

" यदि हम अपने आप को धोका देने से बचा लें तो हम सबकुछ बचा सकते हैं । यदि हम वास्तविकता से आँख बन्द करना छोड़ दें तो हम सबकुछ देख सकते हैं ।"
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एक समय था जब भारत में गँभीर ज्ञान की बातों को सूत्र रूप में कहने की परम्परा थी । परवर्ती काल में उन सूत्रों पर भाष्य के बड़े बड़े ग्रँथ लिखे गये । सूत्र स्मृति में सहज ही समा जाते थे । अपनी ठौर बना लेते थे । व्यक्ति सहज ही स्मृतिमान हो जाता था । यह वचन भी सूत्र जैसा प्रतीत होता है ।

सामान्य ढ़ँग से कोई भी मनुष्य यह मानने के लिये तैयार नहीं होगा कि वह स्वयँ को धोका दे रहा है । मनुष्य तो यह समझता है कि वह जो सोचता है, करता है वही ठीक है, सत्य है, समयानुकूल है । फिर इसमें ठगी की गुँजाइस कहाँ है ।

ठग क्या करता है ? वह झूठी बातों को मोहक तरीके से आपके समक्ष रखता है और आप उसे सच मान लेते है । यहीँ आप ठग लिये जाते हैं । ठीक इसी प्रकार जब आप किसी विचार, दृश्य या अनुभव पर अपना पूर्व निर्धारित रूप को आरोपित करते हैं तो वह सत्य झूठ में बदल जाता है और जैसा आप चाहते हैं वैसा हो जाता है । इसका प्रभाव उस विचार, दृश्य या अनुभव पर नहीं पड़ता । आप ठगे जाते हैं । स्वयँ द्वारा स्वयँ की ठगी ।

जब हम वस्तुओं, दृश्यों में अपनी दृष्टि आरोपित कर अपने इच्छित ढ़ँग से देखते है तो वास्तविकता से वँचित रह जाते हैं । लाभ की जगह हानि होती है । ईश्वर द्वारा भेजा गया भोग हमसे छूट जाता है । इसीलिये कहा गया है हमें अपने आप को धोका देने से बचना चाहिये । अपनी दृष्टि खुली रखनी चाहिये ।

अनेक बार ऐसा होता है कि हम अपनी ओर से एवँ सामने वाले की ओर से आँखें चुरा लेते है । जो हम हैं वह जानते तो हैं पर स्वीकार नहीं करते । घटा, बढ़ाकर बताते हैं और वैसा ही व्यवहार खुद करते हैं या दूसरों से अपेक्षा करते हैं । यही है वास्तविकता से आँख बन्द करना । यदि हम अपने आप में रहें । अपनी औकात को स्वीकारें तो हमारी दृष्टि निर्मल हो जायेगी और हमें सब कुछ अपने मूल रूप में दिखाई देने लगेगा ।
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