बुधवार, मई 06, 2015

  अघोर वचन -19

" समाज में रहकर अमानी बने रहो । यह ध्यान रहे कि सम्मान, आदर और किसी भी प्रकार के प्रलोभन के पीछे अपने इस मुल्यवान जीवन का अधिकांश निकल न जाय । इसी को ध्यान भी कहते हैं ।"
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मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है । उसने विपरीत लिंग के साथ जुड़कर सबसे पहले परिवार संस्था का निर्माण किया । तत्पश्चात कई परिवारों को जोड़कर समूह बनाया । समूहों में जब जुड़ाव घटित हुआ तो समाज बना । विकास की इस प्रक्रिया में आचार, व्यवहार, नैतिकता, जैसे जाने कितने नियम बने । कुछ समय की धारा में टिक नहीं पाए, परिवर्तित हो गये । नये रूप में पुन: स्थापित हुए । आज हम समाज को जिस रूप में देख रहे हैं वह इसी सतत प्रक्रियागत विकास का परिणाम है ।

अघोरेश्वर इस वचन में मानव मात्र, चाहे वह गृहस्थ है या सन्यासी, या अन्य कोई, से कह रहे हैं कि समाज के भीतर समाज के अंग बनकर रहो । समाज को त्याग कर मशानचारी, हिमालय जाकर एकान्तसेवी बनने की आवश्यकता नहीं है । अमानी बनने की जरूरत है यानिकि समाज के भीतर भी रहो और समाज तुमको छुए भी नहीं । कमल के पत्ते की तरह समाज रूपी जल से निर्लिप्त ।

समाज में अमानी बनकर रहना अत्यंत कठिन है । मनुष्य के लिए काम, क्रोध, लोभ, और मोह वृत्तियों को सब समय सम अवस्था में रखना दुस्कर होता है । मानव मन इतना विलक्षण है कि कब और कहाँ, क्या कर जायेगा कुछ कहा नहीं जा सकता है । वचन में यह कहा गया है कि मनुष्य जीवन भर अपने कार्यकलापों पर दृष्टि रखे ताकि उसका मन उसे सांसारिक प्रलोभनों में फंसाकर उसको तिगनी का नाच न नचा सके और उसका जीवन लोभ, मोह के चक्कर में निकृष्ट जीवन न कहलाने लगे । उससे सुख, शाँति की धारायें दूर भाग जाँय । वह अपने पशुत्व से हार जाय ।

इस प्रकार की सतर्कता बरतना ध्यान की श्रेणी में गिना जाता है ।
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