गुरुवार, मई 07, 2015

अघोर वचन -20

" अपने लिये जीविका का अधिक संग्रह न करना । समाज के जो लोग निस्सहाय, साधनविहीन हो गये हैं, उन्हें अपनी जीविका में से बाँटकर देना । इसी को समसमाधि, समान तद्रूपता कहते हैं ।"
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जीविका एक बृहत् अर्थवाला शब्द है । कृषि, व्यापार, नौकरी सभी कुछ इसके अन्दर सम्मिलित हैं । यहाँ पर जीविका से धन अभिप्रेत होता प्रतीत होता है । कहा गया है कि धन का संग्रह अपने और अपने परिवार के भरण पोषण, आवश्यकता की पूर्ति के लिये मात्र करना चाहिये ।

आज पश्चिमी संस्कृति को स्वीकार कर भारतीय जनों की आवश्यकता भी अनन्तगुना बढ़ गई है । इन बढ़ी हुई आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये प्रचूर मात्रा में धन चाहिये होता है जो बहुधा हमारी जीविका से प्राप्त नहीं होता । हमें नैतिक, अनैतिक किसी भी तरह से धन प्राप्ति हेतु प्रयत्न करने होते हैं । हम बिना संकोच प्रयत्न करते हैं, चाहे इसके लिये हमें अपनी आत्मा ही क्यों ना गिरवी रखनी पड़े । हमें मीडिया इन प्रयत्नों के प्रकार और दुश्परिणाम रोज ही तो दिखाता रहता है ।

समाज में शारीरिक विकलाँगता, मानसिक अक्षमता, प्राकृतिक विपदा से पीड़ित, विधवा जिन्हें परिवार ने निष्कासित कर दिया है जैसे लोग निस्सहाय व साधन विहिन हो जाते हैं । इनके समक्ष शरीर रक्षा के निमित्त भोजन प्राप्ति की भी समस्या उत्पन्न हो जाती है । आकाशवृत्ति या भिक्षाटन के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचता । ऐसे लोगों को अपनी जीविका में से बाँटकर देना सर्वथा उचित माना गया है । कुछ महात्मा इसके लिये अपनी आय का दस प्रतिशत दान देने की प्रेरणा देते हैं । अघोरेश्वर जीविका में से कितना बाँटा जाय इसका निर्धारण नहीं करते । वे यह मनुष्य के विवेक पर छोड़ दिये हैं ।

जब मनुष्य में निस्सहाय एवँ साधनविहीन लोगों के लिये अपनी जीविका में से कुछ बाँटने की इच्छा जागती है और वह इसे मूर्तरूप देता है तब उसकी मनःस्थिति विशेष प्रकार की हो जाती है । इसे अघोरेश्वर ने समाधि के समान माना है और तपस्या से प्राप्त मनःस्थिति जैसा या तद्रूप कहा है ।
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