मंगलवार, जून 23, 2015

अघोर वचन - 37


" दैहिक प्रेम प्रेम नहीं है । वह तो मोह ममता है । वास्तविक प्रेम तो उस ममता को नष्ट कर देने में है । आत्मिक प्रेम ही वास्तविक प्रेम है । आत्मिक प्रेम का जो आचार्य है उसकी शरण में जाओ । वह तुम्हें प्रेम का विराट् रूप दिखलाएगा । वह तुम्हारे हृदय में ही है ।"
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प्रेम एक सापेक्ष शब्द है । इसका स्वरूप में भी पर्याप्त भिन्नता पाई जाती है । कभी यह माँ की ममता के रूप में निखरता है तो कभी देशप्रेम के रूप में दिब्यत्व की ओर कदम बढ़ाते दिखता है । कभी हृदय की अतल गहराईयों से आकर मन को अभिभूत कर देता है तो कभी दैहिक आकर्षण का रूप धरकर विकृत होता नजर आता है । प्रभु प्रेम में मीरा दीवानी हो जाती है, देशप्रेम में सैनिक आत्म बलिदान के लिये तत्पर हो जाता है, यौवन की दहलीज चढ़कर दो प्रेमी समाज को अमान्य कर घर से भाग जाते हैं, पुत्रमोह में पिता अपने वँश का सर्वनाश कर लेता है, कुर्सी के लिये नेता जनता को ठगता है, लूटता है और किसी भी सीमा को लाँघ जाता है, ऐसे प्रेम के कई रूप हैं, रँग हैं, ढ़ँग हैं । आजतक प्रेम को परिभाषित नहीं किया जा सका है ।

दैहिक प्रेम प्रेम का स्थूल रूप है । न इसमें गहराई है और न विस्तार । यह देह से शुरू होकर देह में ही समाप्त भी हो जाता है । इसमें प्राप्ति की उत्कंठा है । अप्राप्ति में निराशा और दुःख है । इसीलिये कहा गया है कि यह प्रेम नहीं है । मोह ने, ममता ने रूप बदला है । वास्तविक प्रेम या आत्मिक प्रेम में उतरने के लिये इस मोह को हमें हटाना होगा ।

आत्मिक प्रेम का आचार्य कौन है ? हम कैसे जानेंगे ? इस कठिन प्रश्न को हल करने के लिये हमें लाहिड़ी महाशय, रामकृष्ण परमहँस, बाबा कीनाराम, अघोरेश्वर भगवान राम जी, साईंराम, आदि संतों के जीवन को देखना होगा । यदि ऐसे कोई आचार्य मिलें तो उनकी शरण जाना चाहिये । वही हमारे हृदय में छुपे प्रेम के उस विराट स्वरूप को उदघाटित करेंगे । उस आत्मिक दिव्य प्रेम से हमारा परिचय करायेंगे । यही उदघाटन, परिचय हमें आत्म कल्याण के पथ पर अग्रसर करेगा ।
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