शुक्रवार, जून 19, 2015

अघोर वचन -36


" जहाँ नीति बरतनी है, अनुशासन बनाये रखना है वहाँ पर व्यवहार में साधुताई की आवश्यकता नहीं होती । साधुताई से काम नहीं चलेगा । वहाँ पर किसी के भी अनिष्ट की भावना का त्यागकर " हृदय प्रीति मुँह वचन कठोरा " वाली नीति का पालन करना होगा । हृदय में प्रीति अवश्य हो मगर शब्द इतने कठोर हों कि शायद वचन सुनकर वह सही रास्ते पर लौट आवे । उस समय वाणी की नम्रता घातक होगी तथा बुरी स्थिति को जन्म देगी ।"
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व्यक्ति को साधु प्रकृति का होना चाहिये । साधु की जिस प्रकार आवश्यकतायें कम होती हैं, दुसरों के लिये जीता है, अपना समय सेवा में लगाता है, सबकी हित चिन्ता किया करता है, अपने आप को स्वच्छ और पवित्र रखता है आदि आदि, ठीक वैसे ही पूरा पूरा तो सम्भव नहीं है परन्तु जितना सम्भव हो सके हमें भी साधु के ढ़ँग को अपनाना चाहिये । इस कार्य, व्यवहार की साधुताई से हमारा जीवन तो सुखमय होगा ही होगा हमारे आसपास भी अच्छा वातावरण बनेगा, लोगों को सत्कर्म में प्रवृत्त होने की प्रेरणा मिलेगी ।

नीति, अनुशासन और व्यवहार में साधुताई के विषय में एक कथा है । एक स्थान में एक विषैला सर्प निवास करता था । जो भी उस ओर जाता सर्प उसे काट लेता । सर्प के काटने से कई लोग मृत्यु को प्राप्त हो चुके थे । लोगों ने उस ओर जाना छोड़ दिया । एक संत अनजाने ही सर्प के निवास की ओर आ निकले । सर्प संत को काटने के लिये दौड़ा पर संत के उपदेश से उनका शिष्य बन गया । गुरू को वचन दिया कि वह लोगों के मृत्यु का कारण नहीं बनेगा । उस दिन से उसने लोगों को काटना छोड़ दिया । लोगों को धीरे धीरे इस बात की जानकारी होती गई । लोग उधर से आने जाने लगे । उसे चुपचाप पड़ा देखकर कभी कभी यूँही पत्थर मार देते । हालत यह हो गई कि बच्चों के लिये वह खेल का वस्तु बन गया । बच्चे डर से पास तो नहीं जाते थे पर दूर से पत्थर, कँकड़ मारते थे । सर्प लहुलुहान हो जाता पर संत को दिये वचन के कारण किसी को नहीं काटता था । एक दिन वही संत उस ओर से निकले । वहाँ पहुँचने पर उन्हें सर्प का ध्यान आया । वे उस स्थान पर गये देखा तो सर्प लहुलुहान होकर अधमरा पड़ा है । उनके पूछने पर सर्प ने सारा किस्सा कह सुनाया । संत उसकी बात सुनकर दुखी हुये । उन्होने सर्प से कहा कि तुम्हें लोगों को काटना नहीं था परन्तु अपने बचाव में फुंफकार तो सकते थे । यही है हृदय प्रीति मुँह वचन कठोरा का सुन्दर उदाहरण ।

आज शासन प्रशासन में बैठे लोगों से इसी प्रकार के व्यवहार की अपेक्षा की जाती है ।
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