शनिवार, जुलाई 04, 2015

अघोर वचन -39


"बहुत से ईर्ष्या, कलह, भय से आदमी भयभीत है । अपने बन्धु बान्धवों से भयभीत है, अपने बच्चों पत्नी से भयभीत है, अड़ोस पड़ोस से भयभीत है, अपने मिलने जुलनेवालों से भयभीत है । भय से आक्राँत हम लोगों का जीवन ग्रस्त है । यह निर्भय होने के लिये, भय रहित होने के लिये हम प्रार्थना करते हैं ।"
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मानव ने विकास के विभिन्न चरणों में अपनी बुभुक्षा मिटाने, शरीर रक्षा, सामाजिकता जिसमें राजनीति शामिल है, श्रम कम करने के उपाय, यात्रा को सुगम बनाने आदि आदि उपाय विकसित किये है । इन उपायों ने मनुष्य जीवन में सुख की अभिबृद्धि तो की है, पर उसे जटिल से जटिलतर बनाता जा रहा है । इसमें एक बड़ी गलती हुई है, वह है विकास की दौड़ में हमने मानवीयता को एकदम से भुला दिया है । परिणामतः मनुष्य इकाई के रूप में तो समृद्ध हो गया, पर मानवमात्र के स्तर पर वह अँतिम साँसें गिन रहा है । कभी भी उसकी मृत्यु की घोषणा हो सकती है ।

जब मनुष्य इकाई के रूप में समृद्ध होता जाता है तो वह अन्यों के प्रति शँकालु हो जाता है । आशँका कलह और भय को जन्म देती है । वह अपने आसपास उपस्थित सभी लोगों से भय खाता है । यहाँ तक कि उसका परिवार, बन्धु बाँधव, पड़ोसी और मित्र भी भय के कारण बन जाते हैं । भय उसके मन में ग्रँथी का रूप धरकर गहराई तक पैठ जाता है ।

आज हमारी यही स्थिति है । हम चौबीस घँटा, सातों दिन भय में जीते हैं । भय हमारे भीतर इतनी गहराई में उतर गया है कि हम उसकी उपस्थिति को भुलाकर जीते चले जाते हैं । हमारा यह भय कभी अकारण आक्रोश के रूप में प्रकट होता है, तो कभी घमँड का रूप धर लेता है । इनसे कलह की उत्पत्ति होती है और कलह हमारे भय को और भी बढ़ाता जाता है ।

भय का दुष्प्रभाव हमारे शरीर और मन दोनों पर पड़ता है । हम कुँठित हो जाते हैं ।  हमारी प्रगति रूक जाती है । समय का अपव्यय होता है । जीवन निरर्थक बातों में व्ययगत हो जाता है और हम अपने आप से ही दूर होते जाते हैं ।
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