गुरुवार, नवंबर 12, 2009

अघोरेश्वर भगवान राम जीः बाल्यकाल














बालक भगवान सिंह की आयु अभी पाँच वर्ष की ही थी कि पिता बाबू बैजनाथ सिंह ने अपनी इहलीला का संवरण कर लिया अगले कुछ वर्षों में दादा , दादी ने भी विदा ले ली आप अपनी दादी का स्मरण बड़ी ही श्रद्धा और भक्ति से किया करते थे आप पर श्रद्धेया दादी की सत् प्रेरणा़, शिक्षा और लालन पालन का दूरगामी प्रभाव पड़ा था संभवतः ज्ञान की जो अनन्त पिपाशा आप में दृष्टिगोचर होती थी उसका बीजारोपण आपकी दादी द्वारा शैशव काल में ही कर दिया गया था
अगले वर्ष आपका नाम पाठशाला में लिखा दिया गया आप पाठशाला जाने भी लगे, परन्तु पाठशाला की पढाई की तरफ आपका झुकाव नहीं हो पाया धीरे धीरे पाठशाला जाना छूट गया और बदले में घर, देवालय और गाँव के बाहर अपने ही बगीचे में भगवत् पूजन में समय बीतने लगा बालक भगवान सिंह के इन क्रियाकलापों पर बड़ों ने आपत्ती की , कहा बिना पढे लिखे केवल पुजारीपन से क्या होगा ! लेकिन अज्ञात को तो कुछ और ही मंजुर था बिद्यालय की कक्षाएं छूटती रहीं समवयस्क बालक प्रातः और सायं एकत्रित होते, कीर्तन होता, भजन होता भक्त प्रह्लाद और भक्त ध्रुव आदि की कहानियाँ सुनाई जातीं समय समय पर खेल भी होते, जिसमें आप ही अगुआ बनते थे
बाबू बैजनाथ सिंह के परलोक गमन के पश्चात आपका परिवार उपेक्षित हो गया जीवन यापन के निमित्त संयुक्त परिवार हर तरह से सक्षम था. परन्तु शायद इस पितृहीन शिशु की संयुक्त सम्पत्ति के लोभ में संयुक्त परिवार के अन्य सदस्य आपके परिवार को सम्पत्ति का उचित हिस्सा भी नहीं देते थे परिणामतः परिवार के लिये जीवन यापन करना भी कठिन समस्या हो गई थी
बहुत काल बाद अघोरेश्वर के श्रीमुख से कुछ भक्तों ने उस समय की घटनाओं का विवरण सुना था, जिसे अघोरेश्वर के शब्दों में अविकल दिया जा रहा है
"उस समय मैं सात वर्ष की अवस्था का था मेरे अपने परिजन, परिवार के लोग मुझे बेचने के निमित्त बिहार प्रान्त के तत्कालीन शाहाबाद ।वर्तमान भोजपुर। जिला के बमनगावाँ ग्राम के एक व्यक्ति स्वर्गीय रामभजु उपाध्याय के मन्दिर पर ले गये उनहें दस रुपये मूल्य पर भी कोई खरीदार नहीं मिला श्री रामभजु उपाध्याय ने भी इन्कार कर आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा कि ऐसे सुकोमल, सुशील, सुदर्शन, समदर्शी, सुन्दर रुप आकृति वाले बालक को बेचने की कल्पना भी अमानुषिक है वापसी यात्रा में मैंने देखा कि एक कुआँ से लट्ठा और कूँड़ द्वारा निकटस्थ खेत में सिंचाई के लिये जल निकाला जा रहा था गर्मी का मौसम था तीन दिनों तक अन्न जल से वंचित रहने के कारण गर्मी और प्यास के वशीभूत होकर उक्त कूँड़ से दो चार चुल्लू जल ही पी सका था कि मुझे गश गया और मैं बेहोश हो गया मैं आधे घंटे तक मुर्छित रहा पता नहीं मैं कब उस स्थान को छोड़ कर चल पड़ा भूलते भटकते मार्ग के पथिकों से पूछताछ करते किसी प्रकार मैं अपने घर के दरवाजे पर पहुँच सका "
इसी तारतम्य में पूज्य अघोरेश्वर के शब्दों में एक अन्य वृतान्तः
"मेरे जीवन की व्यथा कथा से सम्बद्ध दूसरी घटना इस शरीर के पिता के स्वर्गवास के बाद घटी उस समय मेरी उम्र नौ वर्ष की थी अपने परिजनों और ग्रामवासियों से तिरस्कृत भूख और प्यास से विकल एवं क्षुब्ध होकर मैं असहनीय पीड़ा अनुभव कर रहा था कितने ही दिनों तक जाँता के तल में पड़ी हुई खुद्दियों को एकत्र कर आधा छटांक खुद्दी मेरी बृद्धा दादी ने मुझे खाने को दी एक दिन उसको खाकर और जल पीकर मैंने उदर पूर्ति की चेष्टा की, लेकिन मेरी बुभुक्षा तृप्त हो सकी उसके बाद तो घरबार भी छूट गया दुर्देव ने, इस आकृति को, जो अब अघोरेश्वर के नाम से जानी जाती है, मालुम कितने क्लेशों, कष्टों से प्रताड़ित किया है उसका संताप आज भी विस्मृत नहीं हुआ है इन यन्त्रणाओं के समक्ष, "धीरज हूँ के धीरज भागा " वाली उक्ति चरितार्थ होती है "
आपने मात्र सात वर्ष की अवस्था में ही गृह त्याग कर दिया था। यह अवस्था सामान्यतः वैराग्य को समझने, आचरण करने की नहीं होती जो जन्मना वैरागी होते हैं, सिद्ध होते हैं, महापुरुष होते हैं, उन्ही में इस प्रकार की अलौकिकता हो सकती है अघोरेश्वर तो अपने आप में अन्यतम थे आप जन्मान्तरीय पुण्योपार्जित फलजन्य योगयुक्त होकर ही सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय अपनी लीला विस्तार के लिये अवतरित हुए थे वे क्या थे यह उनकी कृपा से ही जाना जा सकता है कहा भी गया हैः "सोई जानय जेहि देहिं जनाई"
तत्कालीन ज्योतिषियों ने परमपूज्य अघोरेश्वर की जन्मपत्रिका बनाई थी जन्मपत्रिका में वे समस्त योग दृष्टिगोचर होते हैं जिन योगों में महापुरुष, धर्माचार्य, लोकनायक, धर्मप्रवर्तक, और विश्वविख्यात लोग जन्म ग्रहण करते हैं आपका जन्म श्री शुभ संवत १९९४ भाद्रपद शुक्ल सप्तमी रविवार ०।३८ दण्डादि इष्टकाल पर हुआ है
अगले एक दो वर्षों तक आपका गृहत्याग, घर वापसी का खेल चलता रहा आप बार बार गृहत्याग करते और आपके परिजन आपको येनकेन प्रकारेण घर वापस ले आते पहली बार आप घर के निकट ही शिव मंदिर के पास जमीन के भीतर कोठरी बनाकर रहने लगे आपकी पूजा अर्चना बिना अन्नजल ग्रहण किये दो दो दिनों तक अनवरत चलती रहती थी घर वापस ले आने पर घर के बाहरी कमरे में श्री रामचन्द्र की मूर्ति रखकर आपकी पूजा जारी रही
अबकी बार आप गाँव के बाहर अपने ही खेत के निकट कुटी बनवाकर रहने लगे यह स्थान निर्जन होने के अलावा बृक्ष और लता आदि से घिरा हुआ था यहाँ सर्प आदि विषधर जन्तु भी रहते थे एक बार रात के किसी समय एक विषधर आपकी कुटी में घुसकर आपके आराध्य ठाकुर जी की चौकी पर कुण्डली मारकर बैठ गया प्रातः काल आप जब उठे तो सर्प को देखा भीड़ इकट्ठी हो गई लोग सर्प को मार देना चाहते थे आपने मना किया थोड़ी देर में सर्प स्वतः कहीं अन्यत्र चला गया इस घटना से सभी जीवों पर आपका सहज दया भाव परिलक्षित होता है गाँव घर के लोगों के आग्रह से आपने यह स्थान छोड़ दिया और अपने आम के बगीचे में कुटी छवाकर रहने लगे इस स्थान पर आपने सत्संग, हरिकीर्तन एवं रामायण पाठ के आयोजन के अलावा कई यज्ञों का भी अनुष्ठान किया यहाँ पर समीप ही गाँव का मिडिल स्कूल था स्कूल के छात्र अवकाश का ज्यादातर समय आपके साथ ही गुजारते थे ये छात्र आपको भगवानदास के नाम से पुकारते थे
यहाँ भी आपको ज्यादा दिन नही् रहने दिया गया परिवार वाले फिर घर लिवा ले गये, परन्तु आपने घर की अपेक्षा शिव मंदिर में रहना उचित समझा जब गाँव के बालकों की भीड़ बढने लगी, आपने मंदिर परिसर में ही एक व्यायाम शाला की स्थापना कर दी गाँव के बालकों के साथ खेल, व्यायाम तथा कुश्ती के कार्यक्रमों के साथ साथ श्री हनुमान जी की नियमित पूजा अर्चना भी चलती रही
इस समय आपकी आयु मात्र ८।९ बरस की ही थी आप केवल जल पीकर नवरात्री का ब्रत किया करते थे आपकी दिनचर्या, पूजा पाठ का कार्यक्रम आदि इस अवस्था के बालक के लिये अति कठोर था
अब आपने गाँव में ही यज्ञावतार जी के मंदिर में रहना प्रारंभ किया यज्ञावतार जी पर आपके पिता जी की बड़ी श्रद्धा थी वे मानते थे कि आपका जन्म यज्ञावतारजी की कृपा से ही हुआ था मंदीर में उस समय श्रीकान्त महाराज, जो परम बैष्णव, उच्च साधक तथा प्रसिद्ध विद्वान थे, रहते थे आपने महाराज जी से वैष्णव दीक्षा ग्रहण की अब वैष्णवाचार के अनुरुप आपकी पूजा अर्चना चलने लगी
कुछ दिनों के बाद आपको परिवार वाले पुनः घर ले गये आपको घर में रहना स्वीकार था इस बार बालक भगवान दास ने भूतों का अड्डा समझा जाने वाला उस नेमुआ बाग में अपना आसन जमाया जहाँ दिन में भी लोग जाने से डरते थे तीन दिनों तक आपने वहाँ साधना की थी किसी अनिष्ट की आशंका से वशीभूत घरवाले पुनः घर चलने का आग्रह करने लगे आपने यह स्थान भी छोड़ दिया
आपकी साधना जैसे जैसे आगे बढती गई, आपके श्रद्धालुओं की संख्या भी बढने लगी और परिजनों का घर चलने का आग्रह भी तीव्र होने लगा लोगों का आग्रह मान कर इसबार आपने निजी अमरुद के बगीचे में एक पीपल के पेड़ तले कुटि बनाकर रहने लगे श्रद्धालु , विशेषकर महिलाएँ मनोरथ लेकर आपके निकट आने लगीं थी मनोरथ सिद्ध भी हो जाते वे पूजन, भोग और प्रसाद वितरण भी करतीं श्रद्धा सुमन के साथ साथ चढोत्तरी भी चढने लगी इसी धन से आपने अपनी हवेली के पीछे एक शिव मंदिर का निर्माण करा दिया
घरवालों का आग्रह अब आपको असह्य होने लगा था अब आपने निश्चय कर लिया कि ये लोग गाँव में रहनेपर इसीप्रकार साधन भजन में विक्षेप उत्पन्न करते रहेंगे, अतः अब गाँव छोड़ देना होगा
क्रमशः



मंगलवार, नवंबर 03, 2009

अघोरेश्वर भगवान राम जीः अवतरण








पूर्व में हुए अघोराचार्यों, अघोरेश्वरों, सिद्धों, और साधकों का जीवन परिचय, साधना , सेवा, क्रियाकलापों का विवरण सामान्यतः अप्राप्य ही है । यदि कुछ उपलब्ध भी है तो वह भी जनश्रुति तक ही सीमित है , परंतु अघोरेश्वर भगवान राम जी के विषय में अवतरण से लेकर लीला संवरण तक विशद विवरण सहज में ही उपलब्ध है । उनके द्वारा स्थापित जन कल्याण में निरत संस्था श्री सर्वेश्वरी समूह, वाराणसी ने अनेकानेक ग्रंथों का प्रकाशन कराया है, जो जन सामान्य को सहज सुलभ हैं । इस लेखक ने अपने लेखन के लिये  श्री सर्वेश्वरी समूह, वाराणसी द्वारा प्रकाशित ग्रंथों की सामग्री का आवश्यकतानुसार उपयोग किया है, जिसके लिये वह अत्यंत आभारी है ।

अघोरेश्वर भगवान राम जी के विषय में क्रमबद्ध जानकारी प्रस्तुत करने का यह एक अकिंचन प्रयास है । मैं उनके बारे में अपनी ओर से कुछ भी न जोड़कर आपको अपनी स्वतंत्र राय बनाने का मौका उपलब्ध कराना चाहता हूँ । कृपया धीरज रखकर मेरे साथ साथ धीरे धीरे आइये आगे बढें ।

अक्षोभ्य सागर समान मनस्विता या,

आनन्द गद् गद् मनोज्ञवचस्विता या ।

लोकोपकार परिकर्मयशस्विता या,

तासांनिदर्शनमयं ह्यवधूत रामः ।।

             ।। अवधूत शतकम् से साभार।।

"जिसे अक्षोभ्य सागर के समान मन की गंभीरता कहते हैं, जिसे आत्मानन्द के कारण गद् गद् हृदय से निकलने वाली वाणी की विशेषता कहते हैं, जिसे लोकोपकारी कार्यों के सम्पादन से उपार्जित यशस्विता कहते हैं, उन सबका एक मात्र उदाहरण औघड़ भगवान राम हैं ।"

अवतरण

  बिहार राज्य के भोजपुर जिले के आरा रेलवे स्टेशन से उत्तर लगभग 15 किलोमीटर दूर चारों ओर से सघन और सुन्दर अमराईयों से घिरा गुण्डी नाम का एक बडा गॉंव है । इसी गुण्डी ग्राम के निवासी थे बाबू बैजनाथ सिंह । बाबू साहब को बहुत दिनों तक कोई सन्तान  न हुई । आपकी यज्ञावतार जी के चरणों में असीम भक्ति एवं श्रध्दा थी । यज्ञावतार जी की कृपा से बाबूसाहब को  संवत 1994 वि० भाद्रपद शुक्ल सप्तमी दिन रविवार तदनुसार दिनांक १२।सितम्बर।१९३७ को एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई । जब बालक का जन्म हुआ तो ठाकुर साहब ने भावावेश में कहा कि मेरे परिवार में साक्षात भगवान ने जन्म लिया है, जो तमाम परिवार को तारने के लिये आये हैं ।  आपने अपने इस पुत्ररत्न का नाम भगवान रखा और राशि के अनुसार इनका नाम पड़ा "देवकुमार" ।

माता

आपकी माता का नाम " लखराजी देवी" था । आपका जन्म सन् १९१० ई० के माघ महीना में ग्राम " बगवाँ" जिला आरा भोजपुर, बिहार में हुआ था । माता का नाम "तपेसरा कुँवरि एवं पिता का नाम "बूटी सिंह " था । आपका  विवाह मात्र तेरह वर्ष की अवस्था में ही  बाबू बैजनाथ सिंह के साथ सन् १९२३ ई० को हो गया था । विवाह के लगभग चौदह वर्षों के पश्चात आपको  महान और यशस्वी पुत्र अघोरेश्वर भगवान राम जी की माता बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । आपके विषय में आगे प्राप्त विवरण विशद रुप में दिया जारहा है ।

पिता

पिता बाबू बैजनाथ सिंह के पास सबल शरीर अच्छी खासी जमींदारी एवं पर्याप्त धन था । इतना सबकुछ होते हुए भी वे अत्यंत पवित्र एवं कोमल हृदय के स्वामी थे । उनका कुछ कालतक व्यवसाय के सिलसिले में बर्मा देश के रंगून शहर में भी रहना हुआ था। बाबू साहब को कुश्ती का बहुत शौक था । वे बाल्यकाल से ही व्यायाम और कुश्ती लडने वालों में प्रसिध्द थे । इन सबके बावजूद वे मूल रूप से सात्विक प्रवृति के राजपुरूष थे । यह कहावत प्रसिध्द है कि सिंह को केवल एक ही संतान होती है । बालक भगवान की आयु मात्र पॉंच वर्ष की होते न होते उनके पिता बाबू बैजनाथ सिंह अपनी जीवनलीला का संवरण कर ब्रम्हीभूत हो गये ।

 

पितामह । दादा।

बालक भगवान के पितामह बाबू चन्द्रिका प्रसाद सिंह एक वहुत ही सम्मानित जमींदार थे । वे बडे ही यशस्वी एवं उदार व्यक्ति थे । उनके दरवाजे से कभी कोई साधु अभ्यागत खाली हाथ न जाता था । सबका यथोचित सम्मान होता था । अपने सहज स्वभाव तथा प्रेमपूर्ण व्यवहार के कारण ग्रामवासी तथा क्षेत्रीय जन सामान्य  उन्हें आदर भाव से देखते थे ।

क्रमशः

 

 

 

 

 

 

मंगलवार, अक्टूबर 13, 2009

क्रींकुण्ड स्थल के ग्यारहवें महंथ अघोराचार्य बाबा राजेश्वर राम जी

बाबा कीनाराम जी ने सन् १७७१ ई० में कहा था कि क्रींकुण्ड आश्रम के ग्यारह महंथ होंगे, फिर वे स्वयं आयेंगे । उक्त वाणी के अनुसार बाबा राजेश्वर राम जी क्रींकुण्ड गद्दी के ग्यारहवें व अंतिम महंथ थे । बाबा राजेश्वर राम जी का जन्म वाराणसी के उच्च राजन्यवंश में हुआ था । आप दर्शनीय मूर्ति थे । उच्च ललाट, अजान बाहू, हृष्ठपुष्ठ शरीर, और निर्मल नीली आँखें थीं । आप अजगर वृत्ति के महात्मा थे । आप ज्यादातर क्रींकुण्ड आश्रम के दालान में अखण्डधूनी की ओर निर्निमेश दृष्टि से ताकते हुए पड़े रहते थे । आपको देहभान नहीं रहता था । वस्त्र न सम्भाल पाने के कारण प्रायः नग्नावस्था ही होती थी । आश्रम के देखरेख का जिम्मा आपके गुरुभाई बाबा आसूराम जी के उपर था । किसी किसी दर्शनार्थी को देखते ही बाबा गालियाँ देने लगते थे और कभी कभी दौड़ाकर मारने भी लगते थे । सन् १९७५ ई० के अप्रेल महीने में जब इस लेखक ने बाबा का दर्शन लाभ किया था, उनकी मुद्रा अत्यंत शाँत थी । उन्होने चरण छूने के लिये भी लेखक को अनुमत किया था । हालाँकि वे उस समय मौन साधे हुए थे । बाद में बाबा आसूराम जी ने बतलाया था कि बाबा ने पूछवाया है कि कोई काम तो नहीं है । लेखक चूँकि पड़ाव आश्रम से अघोराचार्य महाराज के दर्शनार्थ आया था, उसका और कोई मनोरथ नहीं था । अतः विनम्रता से केवल दर्शन लाभ ही मनोरथ है, यह जतला दिया था । लेखक को उस समय बतलाया गया था कि बाबा की आयु इस समय ११० बरस की हो रही है । यदि इसे हम सत्य मान लें तो बाबा का जन्म सन् १८६५ ई० के आसपास हुआ हो सकता है ।
बाबा राजेश्वर राम जी अघोराचार्य थे । वे लम्बे समय तक गहन साधना में लीन रहे थे । भविष्य की आवश्यकताओं के अनुरुप उनको परमात्मा ने विशेष रुप से तैयार किया था, क्योंकि अघोरेश्वर कीनाराम जी ने सैकड़ों बरस पहले ही कह दिया था कि क्रींकुण्द स्थल के ग्यारहवें महंथ के बाद वे स्वयँ आयेंगे , अतः बाबा राजेश्वरराम जी को अघोरेश्वर का गुरु बनना था । दीक्षा देना था । संस्कारित करना था और आने वाले नये समय के लिये जमीन तैयार करनी थी । ऐसा बाद में हुआ भी । परमपूज्य अघोरेश्वर बाबा भगवान राम जी सन् १९४६ ई० में स्थल पहुँचे और उन्होने बाबा राजेश्वरराम जी से अघोर दीक्षा प्राप्त किया ।
बाबा राजेश्वरराम जी के विषय में बहुत सामग्री उपलब्ध है । उक्त सामग्री का उपयोग हम यहाँ पर नहीं कर पा रहे हैं, क्योंकि जहाँ जहाँ बाबा राजेश्वरराम जी का विवरण है , वहीँ परमपूज्य अघोरेश्वर भगवान राम जी के विषय में भी उल्लेख मिलता है । अतः हम परमपूज्य अघोरेश्वर भगवान राम जी के साथ बाबा राजेश्वरराम जी का विवरण प्रस्तुत करते चलेंगे ।
बाबा राजेश्वरराम जी सन् १९७७ ई० के अंतिम महीनों में अश्वस्थ हो गये थे । उनकी सेवा सुश्रुषा और इलाज की व्यवस्था स्थल में ही की गई थी । बाबा ने अब समाधि ले लेने का निर्णय कर लिया । एक दिन बाबा राजेश्वरराम जी ने अघोरेश्वर बाबा भगवान राम जी को अपनी इस इच्छा से अवगत कराया कि उनके बाद क्रींकुण्ड आश्रम के महंथ का पद बाबा भगवान राम जी संभालें । बाबा भगवान राम जी ने सविनय निवेदन किया कि " मैंने तो समाज और राष्ट्र की सेवा का ब्रत ले लिया है । महंथ पद पर आसीन होने से उस ब्रत में व्यवधान उत्पन्न हो सकता है ।" अघोरेश्वर बाबा भगवान राम जी ने क्षमा याचना करते हुए एक योग्य व्यक्ति को महंथ पद पर नियुक्ति के लिये प्रस्तुत करने का वचन दिया । अगले ही दिन अघोरेश्वर बाबा भगवान राम जी बालक सिद्धार्थ गौतम राम को लेकर गुरु चरणों में उपस्थित हुए, जिन्हें पारंपरिक एवं कानूनी औपचारिकताएँ पूर्ण करने के उपराँत क्रींकुण्ड आश्रम का भावी महंथ घोषित कर दिया गया ।
बाबा राजेश्वरराम जी का शिवलोक गमन १० फरवरी सन् १९७८ ई० को हुआ था ।
क्रमशः

सोमवार, अक्टूबर 05, 2009

क्रींकुण्ड के आठवें, नवें और दसवें महंथ

बाबा मथुरा राम
बाबा जयनारायण राम जी के परदा करने के बाद आप महंथ गद्दी पर बैठे । आप इस गद्दी के आठवें महंथ थे । औघड़ दीक्षा के पूर्व आपकी जाति कुम्हार थी । आपकी रुचि साधना में अत्यधिक होने के कारण आश्रम की उन्नति की ओर कम ध्यान दे पाते थे । आपके विषय में कोई भी जानकारी उपलब्ध नहीं हो पा रही है ।
बाबा सरयू राम
बाबा मथुरा राम के बाद नवें महंथ बाबा सरयू राम जी हुए । कहा जाता है कि आपका जन्म ब्राह्मण कुल में हुआ था और जन्म स्थान जिला जौनपुर का कोई गाँव माना जाता है । आपके बाद उक्त ब्राह्मण कुल में अनेक औघड़ हुए । आप सदैव ब्रम्हानन्द में डूबे रहने वाले महात्मा थे । आपके विषय में भी कोई जानकारी उपलब्ध नहीं हो पा रही है ।
बाबा दलसिंगार राम
क्रीं कुण्ड गद्दी के दसवें महंथ के रुप में बाबा सरयू राम जी के परदा करने के बाद आप प्रतिष्ठित हुए । आपका जन्म वाराणसी में ही हुआ था । आप उच्चकुलीन क्षत्रीय थे । आप महंथ बनने के पूर्व गंगा जी के किनारे कुटी बनाकर एकाँत साधना में लीन रहा करते थे । आपकी महंथ पद प्राप्ति की स्पृहा नहीं थी , परन्तु दैवयोगवसात् आपको महंथ बनना पड़ा । आप महंथ बनने के बाद भी जाग्रत समाधि की अवस्था में रहते थे । आप शिष्य बनाने, प्रचार प्रसार करने के कार्यों के लिये समय नहीं निकाल पाते थे । आपके विषय में इससे अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है ।
क्रमशः

शनिवार, अक्टूबर 03, 2009

क्रींकुण्ड के सातवें महंथ बाबा जयनारायण राम जी


वाराणसी जनपद के बलुआ ग्राम में एक जायसवाल !कलवार! व्यवसायी परिवार रहता था । यह परिवार गुड़ और चीनी के व्यापार से अच्छा धन और नाम कमाया था । इस परिवार द्वारा बलुआ गाँव में एक शिव मंदिर बनवाया गया था । बलुआ ग्राम के निकट गँगा पश्चिम वाहिनी हैं अतः यह क्षेत्र पुण्य क्षेत्र माना जाता है । यहाँ माघ मास की अमावस्या, जिसे मौनी अमावस्या कहते हैं , को गँगास्नान का महापर्व आयोजित होता है । इसी ग्राम में उक्त जायसवाल परिवार में बाबा जयनारायणराम जी ने जन्म लिया था । बाबा की जन्म तिथि तो ज्ञात नहीं है परन्तु सन् १८४० ई० के आसपास की बात रही होगी ।
कुछ काल बाद व्यवसाय में मंदी के चलते बाबा के परिवार को बलुआ ग्राम छोड़ना पड़ा । बाबा का परिवार अपने व्यापार को पुनः व्यवस्थित करने के उद्देश्य से मिरजापुर जनपद के अदलपुरा गाँव में जा बसा । इस समय तक बाबा युवा हो चुके थे । उनके पिछले जन्म के संस्कार जोर मारने लगे थे । उनका मन वैरागी हो रहा था । अचानक आपके जीवन में एक निर्णायक क्षण आया और आप वाराणसी में क्रींकुण्ड बाबा कीनाराम स्थल आ गए । उस समय स्थल के महंथ गद्दी पर बाबा भवानीराम जी थे ।
बाबा जयनारायण राम भाग्यशाली शिष्य कहे जायेंगे क्योंकि उन्हें गुरु के रुप में बाबा भवानीराम जी मिले । बाबा भवानी राम वीतराग एवँ अजगर वृत्ति के महात्मा थे । वे क्रींकुण्ड स्थल से कम ही बाहर निकला करते थे । वे क्रींकुण्ड स्थल आने वाले श्रद्धालुओं को भी दण्डप्रणाम स्वीकार कर विदा कर दिया करते थे । दो तीन दिन में किसी गृहस्थ के घर जाते और जो कुछ मिल जाता उसी से संतोष पूर्वक क्षुधा निवारण कर स्थल में लौट आते थे । बाबा भवानीराम जी स्वात्माराम में सदा रमने वाले महात्मा तो थे ही वे शिष्य से भी साधना विषयों में अपेक्षित गंभीरता चाहते थे । वे अप्रसन्न होने पर धूनी से लकड़ी खींचकर शिष्य को मारने में भी देरी नहीं करते थे । इसिलिये बाबा जयनारायणराम जी ने कहा हैः
गुरु भक्ति अति कठिन है, ज्यों खाँण्डे की धार ।
बिना साँच पहुँचे नहीँ, महा कठिन व्यवहार ।।
बाबा जयनारायणराम जी को दीक्षा प्रदान करने के बाद गुरु का आदेश हुआ कि खोजवाँ बाजार में जाकर रहो । बाबा खोजवाँ बाजार में रहने लगे । उस समय उनके पास दो ही काम थे, तप करना तथा स्थल जाकर गुरु की सेवा करना । दोनो ही काम बाबा बड़े लगन से करते थे । खोजवाँ बाजार में शुरु शुरु में तो लोगों ने बाबा से दूरी बनाये रखा, परन्तु जब उनकी तपः सिद्धी की सुगन्ध फैलने लगी पूरा बाजार आपका भक्त बन गया । बाबा ने वहीं पर जन सहयोग से एक कुटी बनवाया तथा एक कुआँ खुदवाया था , जो आज भी है । उक्त स्थान आज भी क्रींकुण्ड के आधीन है ।
बाबा जयनारायण राम जी अपने गुरु द्वारा ली जा रही कठिन परीक्षा में न केवल सफल रहे , वरन् उन्होने अपनी तपस्या से गुरु को भी प्रसन्न कर लिया । फिर क्या था, जहाँ गुरु प्रसन्न हुए उच्चकोटी की तमाम सिद्धियाँ हस्तगत होती चली गईं । बाबा भवानी राम जी ने बाबा जयनारायण राम को एक दिन अचानक बुला भेजा । बाबा आये और गुरु ने उन्हें अपनी गोद में बिठाकर क्रींकुण्ड गद्दी का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया । अतः बाबा भवानी राम जी की समाधि होने पर बाबा जयनारायण राम जी क्रींकुण्ड गद्दी पर बैठे ।
बाबा जयनारायण राम जी जब क्रीं कुण्ड गद्दी पर बैठे, उस समय आश्रम की स्थिति उतनी अच्छी नहीं थी । आप अपना निर्वाह आकाशवृत्ति से करते थे, और आश्रम में जो भी चढावा आता उसे आश्रम की उन्नति में लगा देते थे । उनके समय में क्रीं कुण्ड आश्रम की बड़ी उन्नति हुई । आपने ही बाबा कीनाराम जी द्वारा रचित चार ग्रंथों का प्रकाशन करवाया था । ये ग्रंथ हैं.. १, विवेकसार २, रामगीता ३, रामरसाल ४, गीतावली । आपने आश्रम में दो उत्सव मनाने की परम्परा चलाई एक रामनवमी के बारहवें दिन तथा दूसरी भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि , जिसे लोलार्क छठ भी कहते हैं । आपको गायन वादन का उच्चकोटी का ज्ञान था । आप सितार, ढोल और मृदंग बजाया करते थे । उक्त अवसरों पर काशी की वेश्याएँ तथा गायिकाएँ आश्रम में नाच गाना प्रस्तुत करती थी । गायिकाओं में यह माना जाता था कि स्थल में गाना प्रस्तुत करने से सालभर उनका गला मधुर बना रहता था । ये उत्सव अब भी मनाए जाते हैं लेकिन वेश्याओं तथा गायिकाओं का नाच गाना सन् १९५८ ई० से निषिद्ध हो गया है ।
बाबा जयनारायण राम जी की तपः सिद्धि प्रकट थी । आप अत्यंत अल्प मात्रा में आहार लिया करते थे । निद्रा पर भी आपने विजय प्राप्त कर ली थी । आपको किसी ने कभी सोते नहीं देखा । आप अष्टाँग योग सिद्ध थे । आप हर समय भजन मे रमे रहते थे । आपकी सिद्धियाँ ऐसी थीं कि आप एक समय में आश्रम, कोलकाता, गंगासागर तथा कई अन्य स्थानों पर एकसाथ अपने भक्तों को दर्शन देते थे । आपमें अपनी सिद्धियों का अभिमान लेश मात्र भी न था । यदि कोई जागतिक मनोरथ लेकर आप के पास आता तो आप कहते थेः "जाओ बाबा कीनाराम की समाधि पर प्रार्थना करो, जो करेंगे वही करेंगे ।"
आप जल्दी से दीक्षा देना स्वीकार नहीं करते थे । शिष्य बनाने के विषय में आप मानते थे कि जैसे बच्चे के लालन पालन का भार मातापिता पर होता है, ठीक वैसे ही शिष्य का दायित्व गुरु पर होता है ।
बाबा जयनारायण राम जी ने ४ मई सन् १९२३ ई० को परदा किया ।
क्रमशः

क्रींकुण्ड गद्दी के छठवें महंथ बाबा भवानीराम

अघोराचार्य बाबा भवानीराम जी बाबा गइबीराम जी के बाद क्रींकुण्ड गद्दी के महंथ बने । आप की साधना में गहरी रुचि थी । आपकी विरक्ति ऐसी थी कि आपके विषय में कोई कभी भी कुछ नहीं जान पाया । आपकी तपः सिद्धि के कारण अघोर परम्परा के साधक बाबा का नाम बड़े ही आदर के साथ लेते हैं । आप क्षत्रीय कुमार कहे जाते हैं । बाबा के विषय में कोई भी विवरण उपलब्ध नहीं हो पाया ।
क्रमशः

गुरुवार, अक्टूबर 01, 2009

क्रींकुण्ड के पाँचवे महंथ बाबा गइबीराम

बाबा गइबीराम ब्राह्मण कुमार थे । ये अघोर दीक्षा के पहले सरकारी कर्मचारी थे । किसी प्रकार आपको सुरापान की लत पड़ गई । ब्राह्मण कुमार का सुरापान ब्राह्मण समाज को गवारा नहीं हुआ और आप समाज बहिस्कृत हो गये । इसी अवस्था में आप क्रींकुण्ड आश्रम आ गये । आप साधना में बहुत रुचि लेते थे । आप अपनी तपः सिद्धी के लिये बहुत प्रसिद्ध हुए । कालांतर में गुरु बाबा धौतारराम ने आपको क्रींकुण्ड आश्रम की गद्दी सौंपकर महंथ पद पर आसीन करा दिया ।
वाराणसी शहर में कामक्षा के निकट एक कुआँ है । इस कुएँ का जल बड़ा ही चमत्कारी है । कहा जाता है कि इसका जल पान करने से गुर्दे की पथरी ठीक हो जाती है । सामान्यतः भी इस कुएँ का जल स्वास्थ्यकर माना जाता है और कई नगरवासी इस कुएँ का जल मँगाकर पीते हैं । इस कुएँ का नाम " गैबी का कुआँ " है । अवश्य ही क्रींकुण्ड के महंथ बाबा गइबीराम जी की तपः शक्ति से ही इस कुएँ के जल में उक्त चमत्कारिक गुण विद्यमान हैं । कहा जाता है कि बाबा गइबीराम जी में संगठन की विलक्षण प्रतिभा थी । उन्होने ही क्रींकुण्ड स्थल के चारों ओर प्रथम बार चहार दिवारी बनवाई थी ।
बाबा गइबीराम जी की जीवनी एवं कृतित्व के बारे में इससे ज्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है ।
क्रमशः